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जीवन के सोपानो में (गज़ल) / सुरेश कुमार शुक्ल 'संदेश'
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					प्रखर अग्नि का ताण्डव नर्तन बारूदी मैदानों में ।
आशाओं के निर्झर सूखे जीवन के खलिहानों में ।
धधक रहे सिन्दूर उजड़ती माताओं की गोंदें हैं ।
रिक्त हो गये कोश दृगों के आतंकी परवानों में ।
युगोन्नयन के दल दल में है कुब्जक कु़ंज विलीन हुए 
गन्धहीन कागजी फूल हैं नीरस युग उद्यानों में ।
अतिकठोर के दल दल में है कुब्जक कुंज विलीन हुए 
प्रलयंकारी  वह्नि निहित है युग के अनंसंधानों में ।
वर्तमान में खोयी खोयी क्षणिका सी जिन्दगी गयी  
लौट न पायी कभी एक पल गुजरे हुए जमानों में ।
मानवता के फूल विरस हैं करूणा की आँखें पत्थर 
मुश्किल हुआ भेद कर पाना मनुज और पाषाणों में ।
हुई औपचारिकता उन्नत अस्त वास्तविकता लगत 
अतिथि नहीं रहा गया रंच भी अब अपने मेहमानों में ।
	
	