भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

जीवन गीत / रमेश क्षितिज / राजकुमार श्रेष्ठ

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

निकलो अश्कों का आइना देखना छोड़कर
कुचलते हुए खोशीदा पत्तों-सी उदासी की सुरंग से
ख़ुद ही के बनाए निराशा की अँधेरी
तारबार से निकलो और देखो
दूसरी और मिलेंगे - इन्द्रधनुषी स्वागतद्वार

डाली-डाली पर उछलते-नाचते परिन्दे
हज़ारों ठेस सहकर तहरीत होती मुसाफ़िर-सी नदी
जीत की जश्न में शामिल
अबीर से रंगित आशावादी जनता जैसे रंगीन फूल
फैलते जा रहे सपनों जैसी मुस्तफ़ा फ़लक
या लोगों की उम्मीदों-से झिलमिलाते अख्तर
तुम्हारे संग ही होंगी जीने लायक
इक पूरी और सुन्दर पृथ्वी

जिसे तुमने दुःख कहा
वो तो तेजाबी गहना
तुम्हारे मखमली अश्कों के तागों से बुना हुआ
जिसे तुमने चोट कहा वो तो प्यारा स्पर्श
किसी महान बुततराश ने बेहुदा बुत को

तराशकर मूर्ति बनाया हो जैसे
तुम्हारे जीवन को उभारने की इक बेजोड़ अनुभूति

वाकई एक बार जीना सीख लिया तो
फिर जितना ही काटो उतना ही बौराती हैं जीवन की कोपलें !

जिन दुःखों को दुःख कहती हो तुम
वो तो ख़ुद ही ने बोया पौधा – अपने ही मन के गमले में
बरामदे या सीढ़ी में
या दहलीज के पास आँगन के इक कौने में

ख़ुद ही ने उगाए दुःखों के कैक्टस
बढ़ते ही जाते हैं दिन-प्रतिदिन
और उसी में उलझकर लहूलुहान होते हैं हम अचानक
फिर कोसने लगते हैं पुराने दोस्त जैसे दुखों को बेकार ही
समाचारवाचिका की तरह मुस्कुराकर झेल लो दुःखों की खबर
मत दुखो – माँझकर रखो लेकिन वह पुरातात्विक दुःख

हर इक इमेल में आए तुम्हारे अश्कों के पारदर्शी तकाज़े
असह्य होते हैं मुझे !

मूल नेपाली भाषा से अनुवाद : राजकुमार श्रेष्ठ