जीवन चक्र के अभिमन्यु / सरस दरबारी
अपने अपने धर्म युद्ध में लिप्त
अक्सर देखा है उसे
परिस्थितियों के चक्रव्यूह
भेदने की जद्दोजहद में
कभी 'वह'-
लगभग हारा हुआ सा
उस युवा वर्ग का हिस्सा बन जाता है
जो रोज़, एक नौकरी एक ज़मीन की होड़ में
नए हौसलोंनई उम्मीदों को साथ लिए निकलता है
और हर शाम-
मायूसी से झुके कंधों का भार ढोता हुआ-
उन्ही तानों, तिरस्कार और हिकारत भरी
नज़रों के बीच लौट आता है
रोटी के ज़हर को लगभग निगलता हुआ
क्योंकि कल फिर एक और युद्ध लड़ने की ताक़त जुटानी है
एक और चक्रव्यूह को भेदना है-
कभी 'वह '
एक युवती बन जाता है-
जो खूंखार इरादों,
बेबाक तानों और भेदती नज़रों के चक्रव्यूह के बीच
खुद को घिरा पाती है-
दहशत-
उस चक्रव्यूह के द्वार खोलती जाती है-
और वह उन्हें भेदती हुई-
और अधिक घिरती जाती है
कभी 'वह'
एक विधवा रूप में पाया जाता है-
एक त्यक्ता, एक बोझ एक अपशकुन
का पर्याय बन-
वह भी जीती जाती है,
भेदती हुई संवेदनाओं और कृपादृष्टि के चक्रव्यूह
की शायद इन्हें भेदते हुए-
भेद दे कोई आत्मा-
और दर्द का एक सोता फूट पड़े-
जिससे कुछ हमदर्दी और अपनेपन के छींटे
उस पर भी पड़ें-
और आकंठ डूब जाये
वह उस कृपादृष्टि में
जो भीख में ही सही-
मिली तो
न जाने ऐसे कितने असंख्य अभिमन्यु
अपने अपने धर्म की लड़ाई लड़ते हुए
जीवन के इस चक्रव्यूह की
भेंट चढ़ते आ रहे हैं
और चढ़ते रहेंगे!