जीवन चक्र / संगम मिश्र
आदि से अन्त तक द्वन्द्व चलता रहा,
पाप की अग्नि में पुण्य जलता रहा।
सत्य है! छलरहित सर्वथा बालपन,
बालकों में सतत देव करते रमण।
खेलने कूदने का अनिन्दित समय।
बालमन से सदा दूर रहता अनय।
दूर तक उड़ चलें है लुभाता गगन,
उच्च उल्लास में मन मचलता रहा।
पाप की अग्नि में पुण्य जलता रहा।
थे युवाकाल के रङ्ग अपने बड़े।
सर्व सुख सामने अनुचरों से खड़े।
एषणा जब जगी भोग उनका किया।
मन भ्रमर रस नवल नित्य छककर पिया।
पुष्ट तन में तरुण रक्त का तेज था,
मात्र आनन्द में नित उछलता रहा।
पाप की अग्नि में पुण्य जलता रहा।
था तनिक भी नहीं ध्यान सद्धर्म में।
पूर्णतः लीन था मात्र दुष्कर्म में।
नित सुपोषण किया आंतरिक क्षेम का।
नाम देकर सदा भोग को प्रेम का।
प्रेम तो आत्म से सर्वथा दूर था,
दूर से देखकर पथ बदलता रहा।
पाप की अग्नि में पुण्य जलता रहा।
स्वामिनी आत्मा राज करती रही।
पुष्ट तन में मृदुल नाच करती रही।
एक ही रूप में एक ही रङ्ग में।
अनवरत लीन थी अङ्ग प्रत्यङ्ग में।
निशिदिवस एक ही रागिनी बज रही,
भोग के अंक में दिन निकलता रहा।
पाप की अग्नि में पुण्य जलता रहा।
है नियति का सदा हीअनोखा नियम।
सत्य का पथ कभी भी न होता सुगम
कुछ सरसता दिखे हर दुरित कर्म में।
इसलिये मन नहीं डूबता धर्म में।
क्याभला क्या बुरा? ज्ञात प्रत्येक को,
जानकर पङ्क में ही फिसलता रहा।
पाप की अग्नि में पुण्य जलता रहा।
हाँ! समय चक्र जब कुछ रहा था बदल
केश होने लगे कनपटी के धवल।
आँख की दृष्टि कुछ तेज खोने लगी।
देह की शक्ति भी अल्प होने लगी।
अन्त के पूर्व का एक सङ्केत था,
किन्तु मन को सतत सत्य खलता रहा।
पाप की अग्नि में पुण्य जलता रहा।
मैं भुलाऊँ जिसे याद उसकी जगे।
मन समझता नहीं बावरा-सा लगे।
कौन दुःशक्ति है बाँधकर डोर से।
खींचती है मुझे एक ही छोर से।
भूल पाता नहीं उस विगत काल को,
आत्म में हर दुरित दृश्य फलता रहा।
पाप की अग्नि में पुण्य जलता रहा।
जागती ही रही कामना नित नयी।
देखते-देखते उम्र भी ढल गयी।
झुर्रियों से भरा तन शिथिल हो गया।
जो लुभाता रहा सर्वथा खो गया।
जो परम सत्य है जान पाया नहीं।
सङ्ग जिसका मिला नित्य छलता रहा।
पाप की अग्नि में पुण्य जलता रहा।
जी रहा आजकल एक विश्वास पर।
प्राण अटके हुये मात्र इस आस पर।
अङ्क में भींचकर सींचकर नेह से।
मुक्त कोई करे इस अधम देह से।
पूर्ण असमर्थ तन हर क्रियाहीन है,
सर्वदा दम्भ में जो उछलता रहा।
पाप की अग्नि में पुण्य जलता रहा।
व्यर्थ है सोचना क्या मिला क्या गया?
प्राण को अब पुनः तन मिलेगा नया।
हैं विविध भ्रांतियाँ विश्व व्यवहार में।
मर्त्य जीवन रमे मात्र उपकार में।
इस अनोखे जनम मृत्यु के चक्र में।
अनगिनत रूप में जीव ढलता रहा।
पाप की अग्नि में पुण्य जलता रहा।
आदि से अन्त तक द्वन्द्व चलता रहा।
पाप की अग्नि में पुण्य जलता रहा।