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जीवन जी कर देख लिया है / सुरजीत मान जलईया सिंह
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कहना चाह बहुत मगर मैं
कुछ भी तुम से कह पाया ना
मेरे मन के भित्त द्वार पर
सपनों का दरबार सजा है
जहाँ तुम्हारी दिव्य मूर्ति
के दर्शन का अजब मजा है
अपनी नीदों के आँगन में
तुम बिन पल भर रह पाया ना
कहना चाह बहुत मगर मैं
कुछ भी तुम से कह पाया ना
कहाँ-कहाँ हम दर्द सम्हालें
कहाँ-कहाँ मरहम रख लें
जीवन जी कर देख लिया है
मौत से भी रिस्ता रख लें
लडी बहुत है जंग खुदी से
हार भी अपनी सह पाया ना
कहना चाह बहुत मगर मैं
कुछ भी तुम से कह पाया ना
किस्मत की बलि वेदी मुझसे
सब कुछ लेकर चली गयी है
शब्द रहे सब बिखरे - बिखरे
मूक भावना छली गयी है
सागर से क्या मिलता जाकर
जब मैं नदी सा बह पाया ना
कहना चाह बहुत मगर मैं
कुछ भी तुम से कह पाया ना…