जीवन झांकता है / निदा नवाज़
जीवन बुझे हुए
चेहरे की पॉवडर-तले छुपी
हर उस झुर्री में से झांकता है
जो ग्राहक के निकलते ही
पछतावे और मजबूरी की पीड़ा से
और गहरी हो जाती है।
जीवन पसीने की हर उस
पवित्र बूंद में से झांकता है
जो एक अपमानित मज़दूर के माथे से
रोटी और पेट के बीच की
थका देने वाली दूरी
काटते गुए गिरती है।
जीवन कलम से टपकने वाले
हर उस कठोर शब्द में से झांकता है
जो मेरे आदिमख़ोर शहर में
अपनी घायल पीठ पर
घटनाओं-भरे इतिहास को
बंधुआ मज़दूर की तरह उठाता है।
जीवन मेरी कविताओं की
हर उस सिमटी हुई पंक्ति
में से झांकता है
जो गोलियों की वर्षा में बैठे
डर और ख़ौफ़ से
बीच में ही काट दी जाती है।
जीवन समय की सूली पर चढ़े
हर उस व्याकुल पल में से झांकता है
जब कविता के बीच में ही
विचार का चंचल पंछी उड़ कर
अन्तरिक्ष के शून्य में
खो जाता है।
जीवन हमारे दिलों ही हर उस
बेतरतीब धड़कन में से झांकता है
जो रात के समय
अजनबी क़दमों की आहट सुनकर
दरवाज़े की कुण्डी चढाते हुए
गूंज उठती है।