तन मन धन सब तुम्हें समर्पित, जैसा रखो प्राण, रह लेंगे।
अपना क्या है, नियति-पवन में तृण से उड़ कर आ निकले हैं
जाने किस नगरी से आये, जाने किस के गांव चले हैं,
डगर डगर पर भटक चुकी है यह मुट्ठी भर धूल हमारी
जाने कितने रूप धरे हैं जाने कितने घर बदले हैं
किसी फूल ने कंठ लगाया तो शायद सुरभित हो जाएं
और अगर जा गिरे मरुस्थल में तो भी क्या है, दह लेंगे।
कितने रोज़ बसे मधुबन में कितने रोज़ बसाये निर्जन
हर सम्भव कोशिश कर देखी पर न बहल पाया उन्मन मन
स्वप्न और आंसू में शायद जन्म जन्म का बैर भाव है
सपने स्निग्ध चरण होते हैं चलते चलते सदा बचाकर फिसलन।
हम कब इतने हुए व्यवस्थित किसी सृजन का श्रेय कमाते
निर्मिति हुई हमारी इसीलिए कि ढ़हें, क्या है, ढह लेंगे।
इससे क्या आशाएं बांधें जीवन तो संयोग मात्र है
सब से अधिक सुखी है वह ही अधिक सभी से अपात्र है
क्योंकि भाग्य जन्मांध किरन के अहंभाव को क्या पहचाने
राज्य-तिलक करता उसका ही जो फैलता दान-पात्र है।
हम ने शीश उठाये रख कर पाप किया है हम भोगेंगे
जीवन का हर व्यंग्य बधिर की भांति सहज मन से सह लेंगे।
पाप हमारे किये तिरस्कृत, केवल निर्मल पुण्य सराहा
जिस ने भी इस भरे जगत में चाहा हमें अधूरा चाहा।
तुम इतने निष्काम हमारे कलुष तुम्हें पावन लगता है
चहल पहल से अधिक अकेलेपन में तुमने साथ निबाहा।
इसीलिए अविभाजित मन से, हम संपूर्ण समर्पित तुम को
अगर डुबाओ तो डूबेंगे, अगर बहाओ तो बह लेंगे।
तन मन धन अब तुम्हें समर्पित, जैसा रखो प्राण, रह लेंगे।