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जीवन धारा बहे सिंधु सम, बड़ी विकट जलधार / रंजना वर्मा

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जीवन धारा बहे सिंधु सम, बड़ी विकट जलधार।
विपदाओं से लड़ कर भी है, जाना हम को पार॥

श्वांसों पर हैं अगणित पहरे, उच्छ्वासों में आग।
उर की अगन बुझाती रहती, नयनों की जलधार॥

अपने ही हाथों अपनी जड़, काट रहे हैं लोग
प्रकृति तत्व की घोर उपेक्षा, करती बंटाधार॥

पीड़ित धरती अब तो हर पल, करने लगी विलाप
कब आयेगा श्याम सलोना, कब होगा उद्धार॥

जंगल जंगल रहे भटकते, राम लखन सिय साथ
माँग रहे तुम से तरु पादप, बस थोड़ा-सा प्यार॥

रात दिवस चलते ही रहते, अविरल झंझावात
बढ़ा शोरगुल कौन सुने अब, मन की विकल पुकार॥

केवल स्वार्थ त्याग देना भी, है अनुपम संकल्प
करें सभी उपकार-सुकृत तो, बने न जीवन भार॥