जीवन धारा / मनीष मूंदड़ा
जीवन ख़त्म नहीं हो जाता कुछ सपनों के छूट जाने से
रात कहाँ ख़त्म हो जाती है कुछ तारों के टूट जाने से
माना के वह वैभव नहीं है, अच्छा वक्त भी नहीं हैं
जीना क्यूँ छोड़ दें हम वक्त के बदल जाने से
हो सकता है तुम्हारा सफ़र अलग हो
औरों से थोड़ा दुर्गम, कुछ कठिन हो
बताओ चलना क्यूँ छोड़ दें हम रास्ते के रूठ जाने से
वक्त के हाथ के खिलोने हैं हम सब
टूटते, बनते, बिखरते, सँवरते, निरन्तर
बचपन क्यूँ ख़त्म हो, कुछ खिलौनों के टूट जाने से
ये भी हो सकता है तुम, हम, थके से हों
इस बार ही नहीं, कई बार के हारे हों
पर राहें कहाँ थमती हैं, पथिक के थक कर चूर हो जाने से
सब संघर्षरत हैं, अपनी-अपनी मुश्किलों से जूझते
फिर क्यूँ दुरूखी हों हम, किसी का कुछ अच्छा हो जाने से
आओ एक अच्छा जीवन जी लें, मरने से पहले
कहाँ फकऱ् पड़ता है इस धरा पर, तुम्हारे, मेरे चले जाने से...