भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
जीवन पथ पर / वीरेन्द्र वत्स
Kavita Kosh से
मैं एकाकी जीवन पथ पर निर्भय निकल पड़ा
तोड़ चला विपदा की कारा
मोड़ चला जीवन की धारा
आहत मन आनंद अश्रु की लय पर मचल पड़ा
मैं एकाकी जीवन पथ पर निर्भय निकल पड़ा
कोई काँपा कल्पित भय से
कोई विकल हुआ विस्मय से
कोई थककर वापस लौटा कोई फिसल पड़ा
मैं एकाकी जीवन पथ पर निर्भय निकल पड़ा
जिस उर से घातक शम्पाएँ
लड़कर चूर-चूर हो जाएँ
वह औरों के दुख की आहट पाकर पिघल पड़ा
मैं एकाकी जीवन पथ पर निर्भय निकल पड़ा
यारी में सर्वस्व लुटाया
अर्थ चुका तो हुआ पराया
जो भी आया वही निकम्मा कहकर उबल पड़ा
मैं एकाकी जीवन पथ पर निर्भय निकल पड़ा