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जीवन भर उलझा ही रहा / अशेष श्रीवास्तव
Kavita Kosh से
जीवन भर उलझा ही रहा बस
नहीं कभी मैं सुलझ सका
सदा औरों की छाँव तले मैं
कभी धूप में चल न सका...
मैं क्या औरों की बात करूँ जब
अपनों को समझा न सका
मेरी बात मेरे मन ही में रही
मैं व्यक्त किसी को कर न सका...
मैं इतना कमज़ोर हूँ क्यों
और इतना आशय हूँ क्यों
जो समाज के भय कारण
सही रह पर चल न सका...
अपनी शेखी ख़ूब बघारते
लोग वही पूछे जाते
अपनेमुँह से ख़ुद अपनी
तारीफ़ कभी मैं कर न सका...
क्यों मैं अत्याचार सहूँ
और मैं क्यों अन्याय सहूँ
जीवन है धिक्कार मुझे यदि
सच के लिए मैं लड़ न सका...
कोई ना समझे या ना जाने
ईश्वर सब कुछ जानता है
फिर क्यों परवाह करूँ इसकी
के मुझे न कोई समझ सका...