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जीवन मे सुख पाबि न सकलहुँ / कालीकान्त झा ‘बूच’

चललहुँ प्राते काल गाम के
साँझ परल घर आबि न सकलहुँ
हम पंछी अनंत नभ वासी
माँटिक बीच हमर परवशता
सुनि सुनि आनक मुक्त छंद के
सुना रहल छी अछता- पछता
गीतकार भ' क' अप्पन तँ
एक्को आखर गाबि न सकलहुँ

हमरा सँ जे हासो पौलक
स्वर केर मधुर विलासों पौलक
तन मे रंग राग जीवन मे
यौवन मे भुवपाशो पौलक
से तँ भेल नेहाल मुदा हम
चिर विलाप केँ दाबि न सकलहुँ

घूमि घूमि क' फूल फूल पर
शूलक किछु परवाहि रहल नहि
रहि गेलहुँ बिन्हवैत अवधि सँ
एक्को बेरुक आहि रहल नहि
रहलहुँ रस जोगवैत मुदा-
चिर प्यासो पर मुँह बाबि न सकलहुँ