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जीवन समर मे / ऋषभ देव शर्मा
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					जीवन-समर में जब गिरा मित्रों के घात से 
हर घाव को सहला गए बस तेरे हाथ थे 
रक्षा-कवच बना दिया आँचल की छाव से 
वरना मैं कैसे झेलता दिन-रात हादसे 
पाँवों में शूल जो चुभे पलकों से चुन लिए 
वनवास की हर राह में हम साथ-साथ थे 
मैं रेत-रेत हर दिशा में दौड़ता फिरा 
मधु गंध रूप रस बने तुम आस पास थे 
लहरों से लड़ के आ गया इस पार चूँकि जब 
मैं डूब रहा था तो तुम भी मेरे साथ थे
 
	
	

