भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
जीवन सार / लावण्या शाह
Kavita Kosh से
अतिरेक, व्यतिरेक है
जीवन जीने का उपक्रम
अब हुआ, जहां पहुँच कर
हुआ, कई बातों पर खेद !
अत्मा का सत्य नित्य
बनता बिगड़ता पल बिता
एक वही हंस रूप शाश्वत
रह मौन साक्षी सा अनित्य
चल रहा यात्रा पर अनुसिक्त !
अब सत्य को पहचानो
शाश्वत जो उसे जानो
न रहा कोइ न रहेगा मानो
जीवन यज्ञ को उत्सव ठानो !
~✽~
- लावण्या दीपक शाह
पत्रिका : विश्वगाथा से
सम्पादक : श्री पंकज त्रिवेदी