Last modified on 1 अप्रैल 2014, at 11:02

जीवन से / केदारनाथ अग्रवाल

ऐसे आओ
जैसे गिरि के श्रृंग शीश पर
रंग रूप का क्रीट लगाये
बादल आये,
हंस माल माला लहराये
और शिला तन-
कांति-निकेतन तन बन जाये।
तब मेरा मन
तुम्हें प्राप्त कर
स्वयं तुम्हारी आकांक्षा का
बन जायेगा छवि सागर,
जिसके तट पर,
शंख-सीप-लहरों के मणिधर
आयेंगे खेलेंगे मनहर,
और हँसेगा दिव्य दिवाकर।