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जीवन है पवित्र, जानता हूं / रवीन्द्रनाथ ठाकुर

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जीवन है पवित्र, जानता हूं,
अचिन्त्य स्वभाव उसका,
अज्ञेय रहस्य उत्ससे
पाया है प्रकाश उसने
किस अलक्षित पथ से-
मिलता न सन्धान उसका।
प्रतिदिन नवीन निर्मलता ने
दिया उसे सूर्योदय
लाखों योजन दूर से
भरकर स्वर्ण घट में आलोक की अभिषेक धारा।
दी वाणी उस जीवन ने दिन और रात को,
रचा वन फूलों से अदृश्य का पूजा थाल,
आरती का दीप दिया जाल
निःशब्द नीरव प्रहर में।
निवेदन किया चित्त ने
जन्म का प्रथम प्रेम उसे।
प्रतिदिन का समस्त प्रेम
अपने ही आदि जादू के स्पर्श से
जाग्रत हो उठता है;
प्रिया को किया प्यार मैंने,
प्यार किया फूलों की कलियों को;
जिनका भी स्पर्श किया उन सबको
बना लिया अन्तरतम।
जन्म के प्रथम ग्रन्थ में लाते हैं अलिखित पत्र हम,
दिन पर दिन भरते ही रहते वे वाणी ही वाणी में
परिचय अपना गुँथता ही चलता है
हो उठता है परिस्फुट चित्र दिनान्त में,
पहचान जाता है अपने को
रूपकार अपने ही स्वाक्षर में,
फिर मिटा देता है वर्ण उसका रेखा उसकी
उदासीन चित्रकार स्याह काल स्याही से;
मिटाई नहीं जा सकती सुवर्ण की लिपि कुछ-कुछ,
ध्रुव तारा के पास ही
जाग रही ज्योतिष्क की लीला है।

‘उदयन’
25 अप्रेल, 1941