जीवन - संध्या / नरेन्द्र देव वर्मा
जीवन की संध्या समीप है
मृत्यु खड़ी है द्वारे
प्राण-विहग ने नीड़ छोड़ने
को अब पंख पसारे।
दिवस ढला इस आशा में
सांझ भये घर आओगे,
रात गई इस प्रत्याशा में
भोर भये घर आओगे,
दिवस दे गया एक विकलता
रात ले गई आशा।
खड़ा रह गया यहां अकेले
गिनते-गिनते तारे।
बादल आये, गरजे - घुमड़े
बिन बरसे घन लौट गये,
प्रिय तुम आये, बिना कहे
कुछ सूने द्वार से लौट गये,
धरती की सौंधी उसांस
है विकल प्यास की माया।
अनागता सी सुधियां आई
बादल पंख पसारे।
विहग विहंसते प्राण तरसते
प्यास विकल है इस मन की
ह्रदय रिक्त है अश्रुसिक्त है
रीति अनोखी है तन की
माटी में मिल गई हमारी
सोने जैसी काया।
और पपीहा पागल रह-रह
पीड़ा सकल उभारे।
गीत अधूरे ह्रदय-बीन के
आशा-तारे न कसे कभी,
स्वर मुमूर्छ है, ग्राम भुलाया
टीस कंठ में बसी अभी,
कोने जनम का बैर भुनाया
जीवन भर भरमाया।
चले जा रहे इस जग से
जपते नाम तुम्हारे।