भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

जीवन : एक संग्राम / सुदर्शन वशिष्ठ

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बुजुर्गों ने कहा था
जीवन एक संग्राम है।

तब सोचते थे
कहां है जीवन एक संग्राम
कहां है धनुष और बाण
तीर तलवार
कहां हैं योद्धा
कहां युद्ध का मैदान!
यहां तो घर गांव है
रिश्ते नाते हैं
आराम से खाते पीते हैं
आंगन में खेलते हैं।
दादू सोये रहते हैं बिस्तर पर
हुक्का गुड़गुड़ाते
सोये हुये भी संग्राम लड़ा है कभी!

बड़े हुये
गिरते पड़ते खड़ा होना सीखा
खाकर ठोकरें, सोचना सीखा
तब जाना
दादू के दिमाग में भिड़ते थे योद्धा
पिता के माथे पर रेंगते थे शत्रु
भीष्म पितामह थे दादू
और पिता युधिष्ठिर या कर्ण
उन्होंने अपने संग्राम लड़े आमने सामने
नहीं उठाया शस्त्र निहत्थे परहारे हओं को क्षमा किया, गले भी लगाया।

संसार को देखा भाला
आजमाया
हमने समय खाया
तब जाना
आज भी जीवन एक संग्राम है
अब लड़ाई हथियारों से नहीं लड़ी जाती
आज लड़ाई हुई है कागज़ी
कागज़ के धनुष बाण
तीर तलवार
हथियार बना है कागज़
जन्म पत्र, प्रमाण पत्र, प्रार्थना पत्र
ग्रीटिंग कार्ड, विजिटिंग कार्ड, राशन कार्ड
सब कागज हैं
पोस्टर, ज्ञापन, विज्ञापन
नोट, प्रनोट, वोट सब कागज़ हैं
लड़ना पड़ता है लिजलिजे प्रतिद्वंद्वियों से
जिनमें न बाहुबल है न पौरुष
बराबरी का युद्ध नहीं है आज
बराबरी का योद्धा नहीं है आज
सब पाखण्डी हैं, शिखंडी हैं
सभी छिपे बैठे हैं अपनी खंदकों में
नहीं होती लड़ाई आमने सामने
किया जाता है पीठ पीछे वार
योद्धा चाहे हो, या न हो तैयार।