जीवाशा की जगह हमेशा आरक्षित होती है। / कुमार मंगलम
मेरे एक अकेले के लिए कितनी जगह चाहिए। मैं अकेले इस धरती से कितना अन्न खा जाऊंगा। मैं अकेले इस देश का कितना जगह घेरता हूँ। तुम्हारे स्मृतियों में मेरी जगह कितनी है। तुम्हारे विचारों में मेरी असहमतियों के लिए कितनी जगह है। मेरे जिंदा अस्तित्व का कौन सा हिस्सा तुम्हारी आँखों में गड़ता है। तुम्हारे नफरतों या प्यार में मेरी उपस्थिति कितनी है। मैं तुमसे कितना दूर और तुम्हरे निज के कितने पास हूँ।
अब मैं यहां से जा रहा हूँ। अब मैं सो जाता हूँ। अब मैं खो जाऊंगा। अब मैं वापस नहीं आऊंगा। मेरा साथी मैं ही हूँ। जितना मैं जगह लेता हूँ, दुनिया के किसी कोने में वो जगह सृजित नहीं हुई है। अब मैं जब तक माकूल दुनिया न बसा लूं, जिसमें मेरे लिए अभय और तुम्हारे लिए प्रेम की जगह न हो, मैं वापस नहीं आऊंगा। तुम अपनी नफरतों में मुझे तलाशती रहो, अब मैं तुम्हारे प्रेम से नहीं लौट आने के जीवाशा में यहां से जा रहा हूँ।
(गद्य कविता)