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जीस्त कटी जाती है आने जाने में / रंजना वर्मा

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जीस्त कटी जाती है आने जाने में
कौन खड़ा है अँधियारे वीराने में

हम खुशियों को ढूंढ़ रहे थे गलियों में
ग़म आ लिपटे दामन से अनजाने में

यादें तेरी जैसे तारों की लड़ियाँ
सजी हमारे दिल के इस बुतखाने में

ये पतझारें वीराने औ तनहाई
सारे लगे हुए मन को भरमाने में

मिलता मीत नहीं सच्चा आसानी से
ढूँढ़ रहे हैं हम अपने बेगाने में

लिख डाला ना जाने क्या-क्या है तूने
जिक्र हमारा भी है उस अफ़साने में

है खुदगर्ज़ बहुत यह दुनियाँ जान लिया
अपना मिला नहीं बेदर्द जमाने में