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जी उठे हश्र में फिर जी से गुज़रने वाले / रियाज़ ख़ैराबादी

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जी उठे हश्र में फिर जी से गुज़रने वाले
याँ भी पैदा हुए फिर आप पर मरने वाले

है उदासी शब-ए-मातम ही सुहानी कैसी
छाँव में तारों की निकले हैं सँवरने वाले

हम तो समझते थे कि दुश्‍मन पे उठाया ख़ंजर
तुम ने जाना कि हमीं तुम पे हैं मरने वाले

उम्र क्या है अभी कम-सिन हैं न तन्हा लेटें
सो रहें पास मिरे ख़्वाब में डरने वाले

नज़अ में हश्र के वादे ने ये तस्कीं बख़्शी
चैन से सो रहे मुँह ढाँप के मरने वाले

सब्र की मेरे मुझे दाद ज़रा दे देना
ओ मिरे हश्र के दिन फै़सला करने वाले

क्या मज़ा देती है बिजली की चमक मुझ को ‘रियाज़’
मुझ से लिपटे हैं मिरे नाम से डरने वाले