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जी गया जो कविता को / संजय अलंग

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अंग थी जीवन का जिसके- कविता
पूर्ण कालिक दिनचर्या भी
और ढ़ंग जीने का
जीने की दिनचर्या कहलाती है- संस्कृति
इसमें कहीं कविता ही होगी

ऊँट सेठ कविता को जीता
जब भी बोलता, तो मात्र कविता
सटीक तुक के साथ
लिखते हैं कवि कविता
वह तो उसे जी जाता
कविता में समा जाता
उसे पूर्ण कर जाता

ऊँट सेठ तो मर गया
पर नहीं मरती कविता
लिखा नहीं कभी उसे इसने
पर सदा धड़कन बनी रही उसकी
कविता और मात्र कविता
गेयता के साथ
सटीक पद्य के साथ
 
अब भी कोई मार नहीं पा रहा है कविता
गेयता मारी, पद्य मारा
कविता तो जीवित है
तलाशती ऊँट सेठ को