भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
जी भर रोया / बुद्धिनाथ मिश्र
Kavita Kosh से
रोज एक परिजन को खोया
पाकर लम्बी उमर आज मैं
जी भर रोया।
जिनके साथ उठा-बैठा
पर्वत-शिखरों पर
उनको आया सुला
दहकते अंगारों पर
जो था मुझे जगाता
सारी रात हँसा कर
वह है खुद लहरों पर सोया।
एक-एक कर तजे सभी
सम्मोहन घर का
रहा देखता मैं निरीह
सुग्गा पिंजर का
हुआ अचंभित फूल देखकर
टूट गया वह धागा
जिसमें हार पिरोया।
किसके-किसके नाम
दीप लहरों पर भेजूँ
टूटे-बिखरे शीशे
कितने चित्र सहेजूँ
जिसने चंदा बनने का
एहसास कराया
बादल बनकर वही भिगोया।