भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

जी भी है / ओमप्रकाश चतुर्वेदी 'पराग'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जी भी है और हमने गुज़ारी भी है पराग

यह ज़िंदगी फ़रेब की मारी भी है पराग


सदियों से जिस समुद्र का मंथन किया गया

अब उसके इन्तक़ाम की बारी भी है पराग


ज़िंदादिली का दौर तो कब का गुज़र गया

बाक़ी है कुछ सुरूर, खुम़ारी भी है पराग


दुनिया की आँख में जो न सच है न झूठ है

गाथा है वो हमारी, तुम़्हारी भी है पराग


माना कि तुमने हमको सँवारा भी है, मगर

टोपी हमारे सिर से उतारी भी है पराग


सीढ़ी बनाके हमको बरतने लगे हैं दोस्त

बाज़ी यूँ हमने जीत के हारी भी है पराग


लग कर गले से हमको धकेला है ज़ोर से

तलवार दोस्ती की दुधारी भी है पराग