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जी में है कि मैं ग़म का सरापा लिक्खूं / रमेश तन्हा
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जी में है कि मैं ग़म का सरापा लिक्खूं
है अस्ल में ग़म क्या? इसे कैसा लिक्खूं
ये प्यार की है आंच भी जीने का भी कर्ब
तो क्यों न इसे बिना-ए-दुनिया लिक्खूं।