जी लिया बसन्त / महेन्द्र भटनागर
हमने भी
जी लिया बसन्त !
सुना था —
बसन्त में फूल खिलते हैं,
हर डाल कोंपलों
नव पल्लवों से लद जाती है,
नव-रस से भर जाती है !
बसन्त में
मदिर-मधुर भावनाओं के
फूल खिलते हैं,
सारी सृष्टि
रंग-बिरंगे परिधानों से सज जाती है,
अन्तर में विविध स्वर
अनायास बज उठते हैं,
सब तरफ़ अजानी झंकारों की गूँज
लहरती है
छा जाती है !
हर सुनसान
अभिनव स्पन्दन पा जाता है,
हर अंधकार
आशा के स्वर्णिम आलोक से
जगमगा जाता है !
हर श्लथ-निश्चेष्ट हृदय
अपरिचित उमंगों से
सिहरता
कसमसाता है !
हर अधर
अभोगे दर्द की अनुभूति पा
फड़फड़ाता है
गुनगुनाता है !
हाथ
कल्पना के उच्चतम शिखरों को
छू लेते हैं !
पर, हमने, यह सब,
कुछ भी तो न जाना,
कुछ भी तो न देखा !
जीवन की कश-म-कश में
बीत गया बसन्त !
हमने भी जी लिया बसन्त !