जी सके हैं / आत्म-रति तेरे लिये / रामस्वरूप ‘सिन्दूर’
जी सके हैं जब कभी भी हम तनिक गुमनाम से!
दिन कटे हैं ज़िन्दगानी के बड़े आराम से!
काम रह जाये जो हमको सिर्फ़ अपने काम से!
लोग हमको भी पुकारें आदमी के नाम से!
हो हमें क्यों कर शिकायत गर्दिशे-अय्याम से!
हम अभी तक तो बचे हैं दोस्त के इल्ज़ाम से!
हम परीशाँ ही रहे नकामिए तक़दीर से,
जीत कर भी जी रहे हैं किस क़दर नाकाम से!
अए दिले नाकाम हिम्मत-हौसले से काम ले,
नाम उनका ही हुआ है जो रहे बदनाम से!
आज नफ़रत ने जुनूने शौक की हद पार की,
जाम टकराया किए हम दुश्मनों के जाम से!
ज़र-जमीं के वास्ते ओढें सियासी ज़िन्दगी,
ये हुआ है, औ’ न होगा यार! अपने राम से!
क्या कहें, कैसे कहें हम, तुमसे हाले बेखुदी,
होश आता तो है, लेकिन एक तुम्हारे नाम से!
घुल गये रौशन अंधेरों में उफ़ुक के दायरे,
सुबह के तारे नज़र आने लगे हैं शाम से!
अश्क को कैसे जिये, सीखे कोई ‘सिन्दूर’ से,
अश्क को कैसे पिये, सीखे उमर खियाम से!