भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

जी हाँ मुझे पता है शीशा टूटेगा / विनय कुमार

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जी हाँ मुझे पता है शीशा टूटेगा।
लेकिन पत्थर सा सन्नाटा टूटेगा।

बाहर वाले आज़ादी के कै़दी हैं
भीतर से ही यह दरवाज़ा टूटेगा।

जितना टूटा उससे ज़्यादा बन बैठा
दादा जी कहते थे राजा टूटेगा।

पैसा से मारोगे पैसा खनकेगा
रुपया से मारोगे पैसा टूटेगा।

है कोई जो घट से घट टकराता है
और पूछता है बोलो क्या टूटेगा।

शब-ए-वस्ल है लतर नींद की फल देगी
सुबह-सुबह बिस्तर से ताज़ा टूटेगा।

जब भी घर में चूहे पहरा देते हैं
बिल्ली को लगता है छींका टूटेगा।

सबकी जीभें तलवारों-सी चलती हैं
होने से पहले समझौता टूटेगा।

छोड़ोगे तो पुर्ज़ा-पुर्ज़ा कर देगा
तोड़ोगे तो पुर्ज़ा-पुर्ज़ा टूटेगा।

बादल के मुँह से लो चांद निकल आया
मुझे लगा था लुक़मा-लुक़मा टूटेगा।

सूरज पर ख़तरा है आँखें खुली रखो
ख़बर मिली है कोई तारा टूटेगा।