भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
जुगनुओं के बाद / नवल शुक्ल
Kavita Kosh से
मालूम नहीं
कौन किसके पास
गया मिलने कि मिला
समय था झुटपुटा
वह प्यार था।
बहुत बाद पता चला।
बहुत धीरे-धीरे
फैलता रहा अंधेरा
बढ़ती रही जुगनुओं की चमक
गर्मियों की तपन कम
दोस्तों की आँखें स्याह
मेरी चमकीली
एक शर्ट अकेली
हफ़्तों वैसी ही रही
घूमती ठंड में, बारिश में
शहर भर
दूर-दूर
गली-मौहल्लों में
गुलाबी।
दिन-रात के अलग-अलग समय
अलग-अलग जगहों पर
अलग-अलग हवाएँ
अलग-अलग रंगों की पत्तियों में
अलग-अलग सुवास
शाम को सुबह की तरह चलता
रात में पोंछता पसीना
रास्ते में एक बिल्कुल नए संग से
बैठ घंटों सुनता
धरती पर कुहनीटिकाए
दूब नोचता
पहले कौन किसके पास जाए
मैं मिलूँ कि वह।
हुआ शुरू
दोस्तों का हाथ मिलना
चांद का रोज़ रात रेंगना।
अब पता चला
प्यार था वह
सरक गया।