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जुगनू / ओमप्रकाश वाल्मीकि
Kavita Kosh से
स्याह रात में
चमकता जुगनू
जैसे उग आया
अँधेरे के बीच
एक सूरज
जुगनू अपनी पीठ के नीचे
लटकाए घूमता है
एक रोशनी का लट्टू
अँधेरे मे भटकते
ज़रूरतमंदों को राह दिखाने के लिए
जुगनू की यह छोटी-सी चमक भी
कितनी बड़ी होती है
निपट अँधेरे में
जिसके होने का सही-सही अर्थ
जानते हैं वे
जो अँधेरे की दुनिया में
पड़े हैं सदियों से
जिनका जन्म लेना
और मरना
एक जैसा है
जिंनके पुरखे छोड़ जाते हैं
विरासत में
अँधेरे की गुलामगिरि
रोशनी के ख़रीदार
एक दिन छीन लेंगे जुगनू से
उसकी यह छोटी-सी चमक भी
बंद कर लेंगे तिजोरी में
जो बेची जाएगी बाज़ार में
ऊँचे दामों पर
संस्कृति का लोगो चिपका कर !
29.04.2011