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जुगल-रस अनुपम अमित अपार / स्वामी सनातनदेव

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राग खम्भावती, धमार 24.8.1974

जुगल-रस अनुपम अमित अपार।
एकहि तत्त्व उभय स्वरूप ह्वै करत स्वगत रति-रस विस्तार॥
दोउ स्वरूप दोउ रति-रंजित, दोउ दोउ के अधीन-आधार।
दोउ दोउ के भोग्य भोकता, दोउ को दोउ में अतुलित प्यार॥1॥
दोउ चकोर दोउ चन्द्र अनूठे, दोउ चातक दोउ जलद अपार।
दोउ पंकज दोउ भ्रमर भामते, दोउ मछरी अरु दोउ जल-धार॥2॥
दोउ प्रेमी दोउ प्रियतम अनुपम, दोउ दोउ के सुख साधनहार।
दोउके बिनु दोउ लगहिं अधूरे, दोउ पूरे दोउ पूरनहार॥3॥
महाभाव मूरति श्रीराधा, स्याम स्वयं सुचितम सिंगार।
दोउ सों दोउ की बढ़त माधुरी, जद्यपि दोउ रसमय सम्भार॥4॥
दोउ एक अरु एकहि द्वै तनु, दोउ अभिन्न पै भिन्न विहार।
तिनके रति-रस की कनिका सों अग-जग पावत रस-संचार॥5॥
मेरे प्रान-प्रान दोउ प्रियतम, दोउ की पद-रति मोर अधार।
ताके बिना न जीवन जीवन, वही एक जीवन-सम्भार<ref>सामग्री</ref>॥6॥

शब्दार्थ
<references/>