जुगाड़ का खेल / वंदना गुप्ता
किस्मत के घोंघे
जब भी सितार बजाते हैं
एक नयी फेहरिस्त में
शामिल होती हैं दस्तकें
होठों से जुबाँ तक लगी कतार में
शब्दों की जुगाली से भर कर पेट
खाए अघाए हुक्मरान करते हैं ताजपोशी
और हो जाती है मुकम्मल तस्वीर
कायदे पढना जरूरी है
किसी भी क्षेत्र में पदार्पण से पहले
क्योंकि
वक्त के सीने की तहरीर बनने को जरूरी है कदमबोसी
आज के वक्त ने
उघाड़ दिया है अपना चेहरा
और करके खुद को बेनकाब
दिया है ब्रह्मज्ञान
थामना ही होगा तुम्हें कोई न कोई पाया
क्योंकि चौपायों पर ही टिकी है साहित्य की धरती
और तुम कृष्ण नहीं
जो अकेले के बूते उठा सको अपनी पहचान का गोवर्धन पर्वत
इसलिए जान लो ये सत्य
वाहवाही का हरम
नसीब का नहीं, जुगाड़ का खेल है
ओ
मूढ़ मगज
मूढमति
बिना लगाए गंगा में गोता
भला किसे मोक्ष प्राप्त हुआ है
और तुम
खींचना चाहते हो
एक बेबस विकल समय में सीधी सरल रेखा
वो भी बिना दान दक्षिणा के
दोष तुम्हारा नहीं
तुम्हारे हठयोग का है
जो हवा की दिशा न पहचान पाए
अब तुम्हारे लिए ये जानना जरूरी है
कि
आज मंडियों में दलालों की बैसाखियों बिना नहीं हुआ करते सौदे
शायद इसीलिए
साहित्य अपंग है और तुम अपाहिज