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जुर्म-ए-इज़हार-ए-तमन्ना आँख के सर आ गया / सज्जाद बाक़र रिज़वी

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जुर्म-ए-इज़हार-ए-तमन्ना आँख के सर आ गया
चोर जो दिल मे छुपा था जा बाहर आ गया

मेरे लफ़्ज़ों में हरारत मेरे लहजे में मिठास
जो कुछ इन आँखों में था मेरे लबों पर आ गया

जिन की ताबीरों में थी इक उम्र की वारफ़्तगी
फिर निगाहों में उन्हीं ख़्वाबों का मंज़र आ गया

शहर के आबाद सन्नाटों की वहशत देख कर
दिल को जाने क्या हुआ मैं शाम से घर आ गया

पहले चादर की हवस में पाँव फैलाए बहुत
अब ये दुख है पाँव क्यूँ चादर से बाहर आ गया

हम दीवानों के लिए थीं वुसअतें ही वुसअतें
ख़त्म जब सहरा हुआ आगे समंदर आ गया

तुम ने ‘बाक़र’ दिल का दरवाज़ा खुला रक्खा था क्यूँ
जिस को आना था वो आख़िर दर्द बन कर आ गया