भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
जुलाहे- सा मन / विनय मिश्र
Kavita Kosh से
किसी नदी का बहना
मुझमें बचा रहा
जाने मन की अमराई में
कैसी हवा चली
मैं उछाह की उंँगली पकड़े
भटका गली गली
किसी धूप के टुकड़े में
दिल लगा रहा
रंग उभरकर आए अक्सर
बीती बातों के
बुनता रहा जुलाहे-सा मन
धागे यादों के
मेला निर्जन में
वसन्त का लगा रहा
हुई उमंगें भेड़ बकरियांँ
जब भी शाम ढली
स्मृतियों की अनगिन छवियांँ
आंँखों में उतरीं
सूरज हुआ गड़रिया
बंसी बजा रहा ।