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जुवेलरी / प्रमोद कुमार
Kavita Kosh से
हे बाला!
तुम जुवेलरी बना रही थी
वह दिख नहीं रही
आज तुम्हारे पास!
उसे बनाना
तुमने सीखा था अन्दर ही अन्दर
तुम्हारी उम्र ही थी उसे बनाने की
कभी उस पर तुम्हारे हाथ-पाँव चलते
कभी तुम्हारा मन
उसका कोई नाम तय न था,
तुमने अपने श्रेष्ठ
अनदिखते उज्ज्वल
मोतियों को गूँथा
हे बाले,
वह लोगों को दिखी एक वस्तु
उसका एक नाम भी पड़ा
तुम्हारा बनाया नहीं
अँग्रेज़ी में
और, स्पर्धा भी
दूसरों से,
तुम्हारी जुवेलरी का
तुम्हारी ही बने रहने पर
शुरू से ही प्रश्न था
प्रतिस्पर्धा का उत्कर्ष
उसके बिकने की क़ीमत थी,
हे बाले!
तुम्हारी जुवेलरी
नहीं रह सकी तुम्हारी
न वह दिख रही
ख़रीदार के पास ।