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जुस्तजू बोसा-ए-दिलदार नहीं थी, कि जो है / सतीश शुक्ला 'रक़ीब'
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जुस्तजू बोसा-ए-दिलदार नहीं थी, कि जो है
ज़िन्दगी हुस्न परस्तार नहीं थी, कि जो है
सब इसी मुल्क में रहते थे कभी मिल जुलकर
दरमियां धर्म की दीवार नहीं थी, कि जो है
डाका डाला है मेरी नींद पे भी, चैन पे भी
वो मेरे दिल की गुनहगार नहीं थी, कि जो है
हम तो आए हैं कहा मान के टूटे दिल का
पहले तो ख्वाहिशे दीदार नहीं थी, कि जो है
मुझसे रूठी है मेरी जाने-तमन्ना जब से
ज़िन्दगी रूठ के पुरखार नहीं थी, कि जो है
जी, जलाने को यहाँ आए हैं कुछ खाना खराब
दोस्ती में यही दीवार नहीं थी, कि जो है
उनके आने से 'रक़ीब' आई है जीवन में बहार
हक़ में दुनिया मेरे गुलज़ार नहीं थी, कि जो है