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जूझती प्रतिमा / रणजीत

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नहीं रहा मैं अपने पथ पर आज अकेला
क्योंकि तुम्हारी भी आँखों में
कल के विकल स्वप्न जागे हैं
तुमने भी निर्मम होकर, अतीत के
तोड़े सभी मोह-तागे हैं
स्मृतियों में जीना तुमने भी छोड़ दिया है
और धधकते वर्तमान का
तुमने भी विष-पान किया है
ताकि भविष्यत् के अपने सपनों को
तुम भी सुधा-सिक्त कर पाओ
समझ गई हो तुम भी, इस मानव-समाज के
अनगढ़ शिला-खंड के भीतर
मूर्तिमान होने को जूझ रही जो
प्रतिमा -
सब पाषाणी बन्ध काट कर
उसको बाहर लाना होगा
मिट्टी की परतों में दबी हुई छटपटा रही जो
एक अजन्मी दुनिया की उस नई पौध को
हृदय-रक्त से सींच हमें उमगाना होगा।
सहमी-सी नज़रों से पर इस तरह न देखो
सपनों के रखवाले केवल हम ही नहीं हैं
हम पर ही उन्माद नहीं छाया भविष्य का
जगती के सुख-दुख के मस्ले
सिर्फ़ हमारे ही दिल पर के भार नहीं हैं
हम-मंज़िल हैं बहुत हमारे
जो नयनों में सपन
दिलों में तपन
सिरों पर कफ़न बाँध चलते हैं।
आओ हम भी जल्दी-जल्दी पैर बढ़ाएँ
अँधियारे के दैत्यों से जो लड़े जा रहे
नवयुग का ध्वज लिए हाथ में बढ़े जा रहे
रक्त-बीज बो-बो कर जो आगामी कल को
लाल किरन से मढ़े जा रहे
उन लोक-हरावल में चलने वालों से क़दम मिलाएँ
ताकि हमारी सबकी आँखों में जो छाए
वे संघर्षरत स्वप्न कभी सच्चे बन पाएँ ।