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जूझते रहे / महेश उपाध्याय
Kavita Kosh से
पाँवों ने छोड़ दिया घर
अनचाहे काम के लिए
लानी है चार रोटियाँ
नन्हे आराम के लिए
टाँककर रजिस्टर में हाज़िरी
हम नई मशीन हो गए
घर पर तो एक अदद थे
दफ़्तर में तीन हो गए
शीशे से टूटते रहे
थोड़े से दाम के लिए
टूटी मुस्कानों पर अफ़सरी
एक कील ठोंकती रही
थोथी तारीफ़ बाँधती गई
हाथों की गति रही सही
जड़ता से जूझते रहे
काग़ज़ी इनाम के लिए ।