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जून के दिन /सादी युसुफ़

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»  जून के दिन


इस तरह गुज़रती हैं ये खट्टी सुबहें
फूलते हुए जीवित ऊतक
सूरज एक पहेली
कोहरे में घिरा समुद्र
और अपने गिर्द घूमता रिकार्ड
अखबारों की तरह
पी एल ओ की तरह
सिनिन के पानी की तरह
और ग़ैर फौजी जहाज़ों की तरह
और मार्क्सवाद विरोधी बुद्धिजीवियों की तरह
और दो शरीरों के आपस में जुड़ने की आदर्श विधि की तरह
मेरी खिडकी के नजदीक वाला पेड घूमना नहीं चाहता।
समुद्र को मुलायम हो कर हरा बन जाने की चाह नहीं।
मुसाफिर को चलते रहने की इच्छा नहीं
और यहाँ छिपा हुआ मैं हकलाता हूँ किसी झूले की तरह
पेड़ों में पानी तलाशता हुआ,
उम्मीद करता हुआ कि मुलायम हो कर हरा बन जाएगा समुद्र,
समुद्र, जो उठ आयेगा मेरी खिडकी तलक ...