भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

जूहू / समीर वरण नंदी / जीवनानंद दास

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

शान्ताक्रूज से उतरकर अपराह्न जूहू के समुद्र किनारे जाकर
कुछ सतब्धता भीख में माँगी थी सोमेन पालित ने सूर्य के क़रीब रुककर,
बंगाल से इतना दूर आकर-समाज, दर्शन, तत्त्व विज्ञान भूलकर
पश्चिम के समुद्र तीर पर प्रेम को भी यौवन की कामाख्या की तरफ फेंककर
सोचा था रेत के ऊपर सागर की लघु आँख, केकड़े जैसी देह लिये
शुद्ध हवाख़ोरी करेगा पूरे दिन, जहाँ दिन जाकर साल पर लौटता है
उम्र आयु की ओर-निकेल घड़ी से सूर्य घड़ी के किनारे
घुल जाती है-वहाँ उसकी देह गिरती हुई रक्तिम धूप के सहारे।
औरेंज स्क्वैश पीयेगा या ‘बम्बई टाइम्स’ को
हवा के गुब्बारों में उड़ायेगा
वर्तुल माथे पर सूर्य रेत, फेन अवसर अरुणिमा उँड़ेल
हवा के दैत्य जैसे हाथी, क्षण में खींच लेगा
चिन्ता के बुलबुलों को। पीठ के उस पार से फिर भी एक आश्चर्य संगत
दिखाई दिया। लहर नहीं, बालू नहीं, उनचास वायु, सूर्य नहीं कुछ
उसी रलरोल के बीच तीन-चार धनुष दूर-दूर एरोड्रम का शोर
लक्ष्य मिलगया थोड़ी देर कौतूहल से बिला गये सारे सुर
फिर घेर लिया उसे वृष,ख् मेष, वृश्चिक की तरह प्रचुर,
सबकी झिक आँख में-कन्धे पर माथे के पीछे
कोई असमंजस सरदर्द की बात सोचने पर
अपने ही मन की भूल से कब उसने क़लम को तलवार से भी
प्रभावी मान कर लिखी भूमिका, एक किताब सबको सम्बोधित कर।
उसने कब बजट, मिटिंग, स्त्री, पार्टी, पोलिटिक्स, मांस, मार्मलेड छोड़कर
वराह अवतार को श्रेष्ठ मान लिया था,
टमाटर जैसे लाल गाल वाले शिशुओं की भीड़
कुत्तों के उत्साह, घुड़सवार, पारसी मेम, खोजा, बेदुईन, समुद्रतीर
जूहू, सूर्य, फेन-रेत, सान्ताक्रुज में सबसे अलग रतिमय आत्मक्रीड़ा
उसे छोड़ है कौन और? उसके जैसे निरुपम दोनों गाल पर दाढ़ी के अन्दर डाल
दो विवाहित उल्लू त्रिभुवन खोज कर घर में बैठे हुए हैं,
मुंशी, सावरकर, नरीमन, तीन-तीन कोणों से उतरकर
देख गये, महिलाएँ मर्म की तरह स्वच्छ कौतूहल भर कर
अव्यय सारे शिल्पी: मेघ को न चाह इस पानी को प्यार करते हैं।