भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

जेठ-बैशाख सखी रे / मुकेश कुमार यादव

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जेठ-बैशाख सखी रे।
मन करै निराश सखी रे।
टप-टप चुवै पसीना।
गरमी केरो महीना।
मुश्किल लागै जीना।
दिनभर पानी पीना।
बुझै नञ् प्यास सखी रे।
जेठ-बैशाख सखी रे।
गरम-गरम हवा बहै।
सब आपनो घरैं रहै।
दुःख दर्द जेना सहै।
केकरौ नञ् कुछ कहै।
टुटे लागै आस सखी रे।
जेठ-बैशाख सखी रे।
खाली खेत-खलिहान।
देखी के सांझ विहान।
हमरो मन परेशान।
ऊपरवाला रो ध्यान।
करैं छी सांझ-विहान।
रखी मनो में आस सखी रे।
जेठ-बैशाख सखी रे।
साजन छै परेशान।
देखी हमरा हैरान।
गर्मी धूप रो शान।
हेरै छै आकाश सखी रे।
जेठ-बैशाख सखी रे।
सूखलो ताल-तलैया।
पानी बिना भैया।
मछली तल-मल।
करै छल-मल।
चिड़ियाँ चुन-मुन।
बैठी गुमसुम।
रहै छै, उदास सखी रे।
जेठ-बैशाख सखी रे।
दिन-दुपहर।
गर्मी रो कहर।
लू रो लहर।
गांव-शहर।
नञ् आवै छै, रास सखी रे।
जेठ-बैशाख सखी रे।
पीपल के छांव।
गली-शहर-गांव।
सब रो ठांव।
कौवा रंग कांव-कांव।
करै छै, बकवास सखी रे।
जेठ-बैशाख सखी रे।
आंधी-तूफान।
बनी शैतान।
गर्दा उड़ाय छै।
खुशी मनाय छै।
हमरा सताय छै।
तोड़ै छै, विश्वास सखी रे।
जेठ-बैशाख सखी रे।