जेठ की तपती दुपहरी / सरोज मिश्र
तुम शरद में पूर्ण सज्जित, पूर्णिमा की शीतला,
जेठ की तपती दुपहरी, में तुम्हीं एकादशी!
सीप का सौभाग्य अपनी देह में मोती छिपाये!
शंख निकले हत अभागे, रेत में चेहरा धँसाये!
भ्रम उठाये सर खड़ा है, बोध पर छाया अँधेरा,
एक ही तट एक अवसर, दो विषम सम्भावनाये!
उँगलियों के पोर गन्धित, देह छू कर चन्दनी,
क्यों विरह की फाँस निश्छल, प्राण के भीतर धँसी!
जेठ की तपती दुपहरी, में तुम्हीं एकादशी!
हम समय की केंचुली को, आयु भर पहने रहेगें!
नागफनियों के बदन पर फूल के गहने रहेगें!
मेघ बरसो या की वापस, स्वर्ग अपने लौट जाओ,
नीर नैनों से ही अपना देवता धोते रहेगें!
विघ्न के ये यत्न लोगों त्याग दो सब निष्फलित हैं!
मैं अटल ध्रुव-सा सरल हूँ, हेय मुझको उर्वशी!
जेठ की तपती दुपहरी, में तुम्हीं एकादशी!