भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
जेठ की तपती दोपहरी में / राधेश्याम बन्धु
Kavita Kosh से
जेठ की तपती
दुपहरी में, प्यार की टहनी झुलसती है,
घूँटभर जल के लिए
कबसे, प्यास नंगे पाँव चलती है।
गर्म लू आतंकवादी-सी
घोसलों के प्राण है हरती,
एक छोटी-सी मजूरी में
भूख भी अब आग-सी लगती।
चिलचिलाती धूप में
फिर भी, ज़िन्दगी नित बस पकड़ती है।
नदी गुमसुम, घाट हैं प्यासे
टोंटियाँ जलहीन हैं सोतीं,
कुर्सियाँ हैं नशे में खोयी,
झुग्गियाँ पानी बिना रोतीं।
सूखतीं हैं रोज़ ही
फसलें, फाइलों में नहर खुदती है।
रोज़ मुन्ना पिता से कहता,
दूध के बदले शहर से नीर ही लाना,
गाँव का जल हो गया गंदला,
हो सके तो एक मीठा कूप खुदवाना।
आज पानी भी बिकाऊ
है, अब न नदिया प्यास हरती है।