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जेठ के महीना / ध्रुव कुमार वर्मा
Kavita Kosh से
बैरी असन तपत हावय धाम,
कइसे दिन पहाही मोरे राम।
खोर गली होगे निच्चट सुन्ना,
तरिया के पानी रोजे होथे उन्ना
दाई के मया असन लागय छइहां
बइठले चिटिक छोड़ के सवो काम॥1॥
प्यास के मारे काही नई खवावय,
कतको पानी पेट तरी समावय।
गंगा जल कस मही हा सुहावय,
निक लागथे बोरे बासी के नाम॥2॥
कांदा असन गोड़ हा उसनावय
सांप असन धाम लपलपावय
तरुवा ऊपर बरसत हाबय आगी
अइसे लागथे ओदर जही चाम॥3॥
ओरवाती अस चूहत हे पसीना,
लाहो लेवय जेठ के महीना।
पंखा धूकत पहाथे मंझनिया
थकहा असन लटपट आथै शाम॥4॥