जेठ मासक गीत / राजकमल चौधरी
हेठ बरखा, जेठ हे सखि, हेठ बरखा जेठ,-कतेक दूरसँ स्मृतिमे
आबि रहल अछि,
एहि पुरान बारहमासाक ई आरो पुरान शब्द...लोक शब्द
मुदा हम कोन ठाम छी?
जेठक एहि अग्निधूसर दुपहरियामे
एहि वृद्ध, जर्जर, पाकड़ि गाछक छायामे हम कियैक अटकल छी!
जेठ हे सखि, हेठ बरखा...मुदा,
आब कहयो हेठ नहि हैत, आब कहियो नहि
हैत बरखा
धरतीक फाटल हृदय
फाटले रहि जायत, आ ओहि गाममे आब कियो हमरनाम
नहि लेत, कियो नहि पूछत, कोनटा लग
ठाढ़ भय,
कहिया धरि अयताह फूलबाबू,
कहिया धरि पुनः प्रारम्भ हैत डाकबंगला पर शतरंजक खेल
कहिया धरि...
मुदा, आब कियो नहि पूछत एहि अग्निजर्जर
दुपहरियामे हम्मर हाल-चाल,
धरतीक फाटल हृदय आब कहियो नहि जुड़ायत
हमरा सँ कतेक जेठ, कतेक अनुभवी, कतेक चतुर-चलाक अछि
ई जेठ-मास
आ, हम कतेक छोट कतेक छुद्र कतक आन्हर-बताह
जे आषाढ़-साओनक प्रतीक्षा
हमरा नहि अछि
-हमरा नहि अछि एतबो-टा आन्तरिक आग्रह जे हेठ हो बरखा
जे अहाँ इनारक तुलसी-गाछक समीप आबि कय ठाढ़ि होइ
हमरा लेल, जे बीति जाय
ई चतुर-चलाक जेठ, आ बरखा-ऋतु प्रारम्भ भेलाक
उपरान्त
हम गाम धूरि आबी,
-एहेन कोनो आग्रह नहि अछि आब
आग्रह सभ, सपना सभ, कथा-व्यथा सभ शेष भेल
हम दी आ ई पाकड़ि गाछ अछि
आन किछू नहि अछि, कतहु नहि, कखनहुँ नहि, कोनो तरहे, कियो नहि
कियो नहि एखन हमरा लेल
हम छी आ ई पाकड़ि गाछ अछि मृत, मलिन, उन्मन
हमरे सन!
(आखर, राजकमलक स्मृति अंक: मइ-अगस्त, 1968)