जेल का अमरूद / अरुण कमल

बहुत दिनों से टिका कर रक्खा था
बैरक के पीछे झुलसे हुए पेड़ पर
एक अमरूद

पहले दिन जब अचानक उधर से गुज़रते
सिहुली लगी डालों पत्तों के बीच
पड़ी थी नज़र
तो अभी-अभी फूल से उठा ही था फल
हरा कचूर

रोज़ देख आता था एक बार
किसी से बिना बताए चुपचाप किसी न किसी बहाने
और आख़िर जब रहा नहीं गया आज
तो
तोड़ ही लाया हूँ

बस एक काट काटा अमरूद
कि भर गया रस से सारा शरीर
भींग गई हड्डी तक

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