भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
जे उट्ठ चल्लियों चाकरी, चाकरी वे माहिया / पंजाबी
Kavita Kosh से
♦ रचनाकार: अज्ञात
भारत के लोकगीत
- अंगिका लोकगीत
- अवधी लोकगीत
- कन्नौजी लोकगीत
- कश्मीरी लोकगीत
- कोरकू लोकगीत
- कुमाँऊनी लोकगीत
- खड़ी बोली लोकगीत
- गढ़वाली लोकगीत
- गुजराती लोकगीत
- गोंड लोकगीत
- छत्तीसगढ़ी लोकगीत
- निमाड़ी लोकगीत
- पंजाबी लोकगीत
- पँवारी लोकगीत
- बघेली लोकगीत
- बाँगरू लोकगीत
- बांग्ला लोकगीत
- बुन्देली लोकगीत
- बैगा लोकगीत
- ब्रजभाषा लोकगीत
- भदावरी लोकगीत
- भील लोकगीत
- भोजपुरी लोकगीत
- मगही लोकगीत
- मराठी लोकगीत
- माड़िया लोकगीत
- मालवी लोकगीत
- मैथिली लोकगीत
- राजस्थानी लोकगीत
- संथाली लोकगीत
- संस्कृत लोकगीत
- हरियाणवी लोकगीत
- हिन्दी लोकगीत
- हिमाचली लोकगीत
जे उट्ठ चल्लियों चाकरी, चाकरी वे माहिया
सान्नूँ वी लै चल्लीं नाल वे
अख्खियाँ नूँ नींद क्यों न आई वे
तूँ करेंगा चाकरी, चाकरी वे माहिया
मैं कत्तांगी सोहणा सूत वे
अख्खियाँ नूँ नींद क्यों न आई वे
इक्क ट्का तेरी चाकरी, चाकरी वे माहिया
लख्ख टके दा मेरा सूत वे
अख्खियाँ नूँ नींद क्यों न आई वे
भावार्थ
--'यदि काम पर जाने के लिए तुम तैयार हो, काम पर जाने को प्रीतम ! तो मुझे भी अपने साथ ले चलो ।
अजी, मैं भी कहूँ, मुझे नींद क्यों नहीं आती ? तुम करोगे नौकरी, ओ मेरे प्रीतम ! और मैं कातूंगी सूत सुन्दर
मेरे प्रिय ! अजी, मैं भी सोचती हूँ, ये नींद क्यों नहीं आती ? एक रुपए की नौकरी तुम्हारी, ओ प्रीतम ! मेरा
सूत होगा एक लाख का । अजी, मैं भी कहूँ मुझे आख़िर नींद क्यों नहीं आती ।'