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जे हेरा गइल / रवीन्द्रनाथ ठाकुर / सिपाही सिंह ‘श्रीमंत’

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जे हेरा गइल
ओकरा खातिर
आउर केतना दिन ले
पेंड़ा हेरब?
जब मिलहीं के नइखे
त ओकरा खातिर
बइठल रहला से
का फायदा?
जवना के संभवने नइखे
ओकरा खातिर
आउर कतना दिन ले
आस लगवले रहीं?
हे नाथ,
हर छन चिंता में मरत-खपत
रात-रत भर के जगल
अब हमरा से पार नइखे लागत!
सकल कठिन बा हमार अब!
हम त रात-दिन
आपन दुआरी
बन कके बइठल बानीं
जे आवे चाही
से का देवाल फान के ना आ जाई?