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जैसा भी है पर अपना शहर है / समझदार किसिम के लोग / लालित्य ललित

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अपना शहर
अच्छा है बुरा है
सुथरा है, गंदा है
चौराहों पर पान की पीक है
पटरियों पर सरसों के तेल में शनिचर है
भगवान में आस्था है
सड़क पर पत्तल के ढेर हैं
आलू-सब्जी पूरी हलवे में अटके लोगों की भीड़ है
साईं की धूम है
अवैध निर्माण जोरों पर है
रेवड़ी-मलाई विभाग के कर्मी मस्त हैं
‘सर्किल रेट’ से धंधा खाली है
दो नंबरी और डीलर मुसीबत में
व्यापार, व्यवहार की हालत पतली है
सोने का भाव चोखा है
चतुर आदमी चतुर चालाक है
लिव इन रिलेशनशिप शादी पर भारी है
बाजार में लूट है, पुलिसकर्मीें
समझौते करा रहे हैं रूपया ऐंठ रहे हैं...
समझौता नहीं चाहती नई बहू
अलग रहने में आजादी चाहती है
माँ-बाप समझते हैं
बच्चों की भाषा
संस्कार को खोते हमलोग
चैनल बाबा में सत्य खोज रहे हैं...
जो हकीकत है उसको नकार रहे हैं
चीनी, मैदा को पौष्टिक बतला रहे
पूंजीपति अपना उत्पादन बेचने में लगे हैं
मरे कोई उनकी बला से...
हाट-बाजार मॉल में तब्दील हो चले
तांगा-गाड़ी सिमट गई
फियट, इंपाला नजर नहीं आती
मॉडल बदल गए
सरकारें बदल गईं
सुपरस्टार आए और चले गए
वक्त बदला, समाज बदला
पर
जो
नहीं बदली
वो है आपकी-हमारी
मानसिकता
अगर जो बदल रही है वह है
धरती...
आप लादे जा रहे हैं
बोझा...
कभी तो चरमरायेगी
वो भी
कभी तो उफ् करेगी यह
भी...
कभी किसी ने सोचा है
कि घर की औरत सुबह से शाम तक
पिसती है और ना जाने क्या क्या
सितम वो सहती है
हुकुम चलाते हम लोग
अपने को सेठ समझते हैं
अगर वो हुकुम ही ना बजाए तब!
तो
मेरे भाइयो
हकीकत को समझो
धरती पर उतर आओ
अपने बुजुर्गों के लिए
समय निकालो
उन्हें टहलाओ
कभी सफर पर ले जाओ
नहीं तो
जाना सभी को है
वहां
जिसे अंतिम निवास
कहते हैं
किसी को पहले
और
किसी को बाद में
अब सोचने की बारी
आपकी है
आप कोई माँ के पेट से
सीखकर नहीं आए थे
यहीं संघर्ष किया
चुगली की
मक्खन लगाया और मुकाम पाया
हकीकत तुम भी जानते हो
और मैं भी
अगर तेज-तेज खाओगे या
गरम चाय पीओगे
तो
संकट में घिर जाओगे
समझो, ठहरो
फूंक मारो
आहिस्ता-आहिस्ता पीयो
जीने की राहें और भी हैं
और
मरना तो कोई भी नहीं चाहता
जब तक हो
जैसे भी हो
मस्त जियो खुश रहो
यह बैचेनी तुम्हें ‘सुट’ नहीं करती
तुम ऐसे ही अच्छे हो
सफर करते हो
‘मेट्रो’ में बस में, रेल में
सरकार को
समाज को
अपने पड़ोसियों को
अपने सहयोगियों को
कोसते हो
जीभर कर
गालियां देते हैं
बच्चों को पीटते हो
बीवी को रूलाते हो
दो-चार पैग पीकर
सो जाते हो
फिर से जीने को
आती है
एक सुबह
सुबह को समझो
और
यह मानो
ईश्वर ने जो दिया
तुम
उसी के काबिल थे
उसी के लिए बने हो
कोई विरला नहीं हो
कि कोई तुम्हें जादू की झप्पी
दे
और
तुम्हारी सारी मुसीबतें
झट से दूर हो जाएं
या
तुम्हारी पांच करोड़ की लॉटरी
निकल जाएं
और कोई सरकार
तुम्हें ब्रांड एंबेसडर बना दें
यह जान लो
ऐसा बिल्कुल नहीं होगा
ओ जी समझे क्या ?
आपसे ही कह रहा हूँ
निम्न मध्यमवर्गीय जी
उठो जागो
नहाओ
जल्दी करो, नाश्ता
ऑफिस को निकलो
रास्ते में एक-दूसरे को
कोसो आंख दिखाओ...
बी.पी. बढ़ाओ
लड़ते-झगड़ते ऑफिस जाओ
फाइल सरकाओ
हां-जी, हां-जी करो
काम निपटाओ
घर पर आकर
नत्थू बन जाओ
इसी में भलाई है
वरना
आप समझ ही गए हैं
कि मैं क्या कहना चाहता हूँ
धोबी का कुत्ता
घर का ना घाट का...