भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

जैसे कोई पुराना घर हो / आनंद खत्री

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

वो
अचानक ऐसे
मिली थी मुझसे जैसे
सालों बाद कोई
अपने पुराने घर को
देख कर कुछ देर
रुक गया हो।

कुछ
पोशीदा नज़रें
ऐसे टिकी थीं मुझपे
और ओट ले रहीं थीं
जैसे
दरवाज़ा किसी दीवार पर
जा टिका हो।

मैं भी
बेदम सा रुका रहा
जैसे
हो बोझल सा कोई
सूना कमरा
धूल की चादर में
लिपटा हुआ।

आज
हाथ बहुत ही
खाली थे
जैसे
यादों की कड़ियों में
न तारीख़
और न पता हो घर का।

वो
रुकी नहीं या
चली गयी।
आयी भी थी
ये मालूम नहीं
बस एहसास
महज़ कुछ ऐसा था।